चीता के स्वागत का शोर और लंपी से गायों की मौत का सन्नाटा
यदि कोई मुद्दा भावनात्मक हो तो उसकी समीक्षा करके उसकी तह तक जाना हमारी जिम्मेदारी बन जाती है। क्योंकि यह कार्य करने में आज विपक्ष अक्षम दिखाई देता है। वहीं लोकतंत्र में विपक्ष ही सरकार की जवाबदेही तय करता है। हाल ही में हमारे देश में चीता को भरी भरकम खर्चे के साथ भारत लाया गया। केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति का परिणाम रहा कि ऑपरेशन चीता और गायों में हो रही लंपी बीमारी के मुद्दे को आपस में जोड़ दिया गया। वर्तमान सत्ता में काबिज भाजपा पर भावनाएं भड़काने का आरोप लगाने वाले विपक्ष ने भावनात्मक पक्ष का ही उपयोग किया। देखा जाए तो मुद्दा तो भावनात्मक है, क्योंकि हमारे देश में गोवंश को धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन यदि विपक्ष चाहता तो ऑपरेशन चीता में तकनीकी दोष को उजागर करके सरकार को घेर सकती थी। विपक्ष चाहती तो गोवंश पर राजनीति करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी पर, आसानी से सवाल खड़े कर सकती थी। लेकिन नेतृत्व विहीन विपक्ष शायद लोकतंत्र का दायित्व निभा ना सकी। हमे यह समझना होगा की गायों में हो रही लंपी बीमारी और चीता के आगमन के खर्चों का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। यदि चीता भारत ना भी आ रहे होते तो भी गायों की हो रही मौतों की संख्या में ज्यादा अंतर नहीं दिखाई देता। सरकार और प्रशासन की लापरवाही और कुप्रबंधन की वजह से इतने मवेशियों की जान गई।
लंपि, वायरस से फैलने वाली संक्रामक बीमारी है जो मुख्यतः मवेशियों में मच्छरों और कुछ मक्खियों के माध्यम से फैलती है। लंपी स्किन डिजीज जिसे पशु चेचक भी कहते है। इसमें सबसे पहले गाय को बुखार आता है और एक या दो दिन बाद गाय की स्किन पर बहुत सारे गोल दाने उभर आते हैं। इस रोग के कारण मवेशियों में दुर्बलता, कम दूध उत्पादन, खराब विकास, बांझपन, गर्भपात और कभी-कभी मृत्यु का कारण भी हो सकता है। इस बीमारी के देश में लाखों केस आ चुके हैं और हजारों गाय जान गवां चुकी हैं। सबसे पहले 2012 में यह बीमारी अफ्रीकी देशों में फैली। भारत में सबसे पहला केस 2019 में ओडिसा में पाया गया। यदि उसी समय सरकार उचित कदम उठाती तो आज यह स्थिति ना बन पाती। इस बीमारी की खबरें कोरोना के आने से दबती चली गईं। स्थिति बिगड़ने के कई कारण रहे उनमें से एक है कि पशु चिकित्सा विभाग में कई पद रिक्त डले हुए हैं, बहुत कम भर्तियां होती हैं। दूसरी तरफ सरकार तब गंभीर हुई जब राजस्थान में खुले स्थानों पर मवेशियों के शवों की फोटो मीडिया में आनी शुरू हुईं। तब जाकर सरकार ने इस वायरल बीमारी के लिए विदेश से वैक्सीन मांगनी शुरू की। चूंकि यह बीमारी अन्य देशों में भी तेजी से फेल रही थी तो पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन की उपलब्धता नहीं हो पाई। मवेशियों को हो रही यह बीमारी एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलते फैलते विकराल रूप लेती गई।
हमारे देश से 1947 में ही चीते पूरी तरह खत्म हो चुके थे। 1952 में भारत सरकार ने चीतों को आधिकारिक तौर पर विलोपित मान लिया था। 1955 में आंध्र प्रदेश ने चीता को भारत में विदेश से लाने का प्रस्ताव रखा। 1970 में सरकार ने ईरान से चीता लाने का प्रयास भी किया, परंतु किसी वजह से बात नहीं बन सकी। 2009 में सरकार ने एक कमेटी बनाई जिसने चीता भारत लाने की योजना बनायी। लेकिन, 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने इसपर स्टे लगा दिया। 2020 में अंततः सुप्रीम कोर्ट ने स्टे हटा लिया जिसकी वजह से चीता को भारत में लाने का रास्ता साफ हुआ। 15 अगस्त 2022 को इन चीतों को नामीबिया से भारत लाना तय हुआ। किसी वजह से कार्यक्रम में बदलाव हुआ और फिर 17 सितंबर 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस के दिन 8 चीता भारत आए। आने वाले 5 वर्षों में क्रमबद्ध 50 चीता भारत लाने का योजना है।
इसके पहले 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो पहले से हमारे पास प्रजातियां खतरे में है उन्हें बचाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि जो गिर में एशियाई शेर है उनके लिए वहां की परिस्थितियां बहुत कठिन हो चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को सुझाव दिया था कि गुजरात से एशियाई शेर को मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। गिर में शेरों के लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं उसकी वजह से 2013 से 2018 के बीच में 413 एशियन शेरों की मौत हुई है। जब शेरों को किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित किया जा सकता था और उन्हें बचाने की कोशिश की जा सकती थी तो उनको क्यों नहीं बचाया गया। क्या हम एक और प्रजाति को खत्म होते देख सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट में यह भी सुझाव रखा गया कि चीता को किसी दूसरी जगह पर रखा जा सकता है जिनमें नोरादेही अभ्यारण, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु के सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व का नाम सुझाया गया।
मीडिया ने भी लंपी के खतरे को समय पर प्रमुखता नहीं दी। वहीं चीता के स्वागत को बहुत प्रमुखता मिली, जनता का भड़कना स्वाभाविक था। इसे चिंगारी विपक्ष के कुछ नेताओं ने दी। कुछ नेताओं ने बाघों को छोड़ने के कार्यक्रम पर तंज कसा और लम्पी वायरस से मर रहीं गायों को लेकर सवाल खड़े किये। सोशल मीडिया पर भी इस विषय पर घमासान दिखने लगी। केवल विरोध के लिए विरोध करके विपक्ष ने अपनी धार कमजोर कर ली। प्रधानमंत्री के बयान को विपक्ष आड़े हाथों ले सकता था जब उन्होंने कहा कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने 1952 में चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया, लेकिन दशकों तक उन्हें फिर से लाने के लिए कोई रचनात्मक प्रयास नहीं किया गया”। क्योंकि यह पूरी तरह सत्य नहीं था। प्रश्न उठता है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी सुझावों की सीधी सीधी अनदेखी क्यों की गई। इसके अलावा जो अन्य प्रजातियों के संरक्षण का खर्चा है उससे कई गुना ज्यादा चीता पर खर्च हो रहा है। ऐसा समझ में आता है कि हम चीता प्रोजेक्ट पर ज्यादा ही ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इसके अलावा यदि विपक्ष लंपि बीमारी को मुद्दा बनाना भी चाहे, तो गोवंश की रक्षा के लिए सरकार की उदासीनता को लेकर घेर सकती थी। वहीं हर महीने हजारों मवेशी रोड ऐक्सिडेंट में मारे जाते हैं, उनके लिए कभी विपक्ष आवाज उठाते नहीं दिखता। मवेशियों को खाने के लिए घास मैदान को विकसित करने को लेकर कभी कोई सरकार कोई भी पॉलिसी नहीं लेकर आयी। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष जनता की भावनाओं की आड़ में राजनीति अल्प समय का फायदा देगी। अंततः सभी को यह खेल समझ ही आ जायेगा।
✍️ पुष्पेंद्र सिंह दांगी
सागर, मध्यप्रदेश
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